माया के बाद वैराग्य का वर्णन।
माया समझ ली, तो राग कैसा? फिर तो स्वाभाविक वैराग्य है।
लोकेशानन्द पूछता है कि जब जगत ही मिथ्या है, तब सब मैं और मेरा मिथ्या है, तो कौन, कैसे, क्यों और किसकी कामना करे? मालूम पड़ गया कि रेत ही रेत है, जल है ही नहीं, तब क्यों दौड़ में पड़ें? जान लिया कि सीप है, चाँदी है ही नहीं, तो क्यों माथा पटकना? समस्त दृश्य जगत जिसे स्वप्नवत् हो गया, वह क्योंकर झूठी वस्तु, झूठे सुख के लिए मारा मारा फिरे?
अब वैराग्य, त्याग व राग का भेद-
जो छोड़ा जाए वो त्याग है, जो छूट जाए वो वैराग्य। केवल तन से छूटा तो त्याग है, मन से छूटा तो वैराग्य। वस्तु में सार मालूम पड़े पर भोग न करें तो त्याग है, वस्तु असार-व्यर्थ मालूम पड़े तो वैराग्य।
रागी और वैरागी में दशा का अंतर है, रागी और त्यागी में दिशा का। रागी विचार करता है मैंने इतना जोड़ा, त्यागी विचार करता है मैंने इतना छोड़